विविध >> गलती किसकी गलती किसकीकिरण बेदी
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जीवन के ऐसे सच्चे अनुभव जो कड़वी सच्चाई...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गलती किसकी ? ऐसे अद्भुत अनुभवों का संकलन है जो व्यक्तिगत रूप से
अभिव्यक्त किए गए हैं, जिन्हें बिना किसी कांट-छांट के प्रस्तुत किया गया
है। यह ऐसे लोगों की कहानी है जिन्हें अपने अतीत की गलती की पीड़ा का
अहसास मात्र है।
जीवन के ऐसे सच्चे अनुभव जो कड़वी सच्चाई का भीतर से ज्ञान कराते हैं, जिसे कोई स्मरण नहीं करता, अहसास, भी नहीं। मगर पाठक के दिलो-दिमाग को झकझोर कर रख देता है, हिलाकर रख देता है। ऐसी गलती, जिसे रोकने के लिए समाज के सजग प्रहरी लगे हुए हैं, रात-दिन, हर वक्त। समसामयिक विषयों को उकेरता-कुरेदता और सवाल-दर-सवाल खड़ा करता एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज।
भारत का एक ऐसा मुखर व्यक्तित्व जिसकी अपनी एक अलग पहचान है, वह नाम है किरण बेदी। पुलिस विभाग में इतिहास रचने वाली किरण बेदी भारतीय पुलिस सेवा (IPS) की पहली महिला अधिकारी हैं। पुलिस सेवा में नई मंजिलें, नई ऊंचाइयों की तलाश करता यह व्यक्तित्व अपराधी से अपराध को कोसों दूर करने और नशे की लत को छुड़ाने में, पुलिस विभाग में आध्यात्मिक प्रशिक्षण देने में और झोपड़-पट्टी के बच्चों को ज्ञान व शिक्षा के प्रसार में अद्भुत योगदान देने के लिए प्रसिद्ध है।
रमन मैग्सासे पुरस्कार, जिसे एशिया का नोबल पुरस्कार माना जाता है, से सम्मानित पुलिस अधिकारी किरण बेदी की यह तीसरी कृति है।
जीवन के ऐसे सच्चे अनुभव जो कड़वी सच्चाई का भीतर से ज्ञान कराते हैं, जिसे कोई स्मरण नहीं करता, अहसास, भी नहीं। मगर पाठक के दिलो-दिमाग को झकझोर कर रख देता है, हिलाकर रख देता है। ऐसी गलती, जिसे रोकने के लिए समाज के सजग प्रहरी लगे हुए हैं, रात-दिन, हर वक्त। समसामयिक विषयों को उकेरता-कुरेदता और सवाल-दर-सवाल खड़ा करता एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज।
भारत का एक ऐसा मुखर व्यक्तित्व जिसकी अपनी एक अलग पहचान है, वह नाम है किरण बेदी। पुलिस विभाग में इतिहास रचने वाली किरण बेदी भारतीय पुलिस सेवा (IPS) की पहली महिला अधिकारी हैं। पुलिस सेवा में नई मंजिलें, नई ऊंचाइयों की तलाश करता यह व्यक्तित्व अपराधी से अपराध को कोसों दूर करने और नशे की लत को छुड़ाने में, पुलिस विभाग में आध्यात्मिक प्रशिक्षण देने में और झोपड़-पट्टी के बच्चों को ज्ञान व शिक्षा के प्रसार में अद्भुत योगदान देने के लिए प्रसिद्ध है।
रमन मैग्सासे पुरस्कार, जिसे एशिया का नोबल पुरस्कार माना जाता है, से सम्मानित पुलिस अधिकारी किरण बेदी की यह तीसरी कृति है।
पुस्तक की उत्पत्ति क्यों और कैसे
प्रिय मित्रों,
गलती किसकी? प्रथमहस्त संग्रह है उन व्यक्तियों के स्वैच्छिक लेखे-जोखे का, जिनके पास अपने अतीत की गलतियों की घोषणा करने के अलावा और कुछ नहीं-प्रत्येक पीड़ादायी अनुभवों का भंडार है। इन व्यक्तियों में स्त्री, पुरुष किशोर और यहां तक कि बच्चे भी शामिल हैं। इन्होंने अपने जीवन की गलतियों को बताने की हिम्मत जुटाई। इन्होंने बताया कि किस हद तक इसके लिए वे स्वयं उत्तरदायी थे और यह भी कि किस हद तक बाहरी परिस्थितियां इनके नियंत्रण से बाहर थीं।
अपने रोजमर्रा के कामकाज में, चाहे वह पुलिस की नौकरी हो या सामुदायिक सेवा, जिसके लिए मैं वचनबद्ध हूं, ये असंख्य दास्तानें व्यक्तिगत तौर पर निदान खोजने के लिए मुझे ‘उद्वेलित’ करती हैं। मैं साफ तौर पर इन लोगों को प्रशासनिक उपेक्षा का वर्णन करते देखती हूं और यह भी कि जो लोग इनकी मुसीबतों के लिए जिम्मेदार हैं, अगर वे चाहते तो जाहिराना तौर पर अपरिहार्य दिखाई पड़नेवाली इनकी समस्याएं निश्चित तौर पर निरोधार्य थीं।
बुद्धिमानी इसमें है कि आप अपनी और अन्य लोगों की गलतियों से सबक लें। जागरुक होना शस्त्रास्त से लैस होने के समान होता है और रोकथाम उपचार से बेहतर होती है। ये अक्सर दोहराई जानेवाली उक्तियां हैं किन्तु ये उच्चस्तरीय वास्तविकता से ओपप्रोत हैं।
यह पुस्तक सम्मान और आपसी समझ के परिणामस्वरूप दिए गए उन व्यक्तियों के आख्यानों का अद्भुत संग्रह है जिन्होंने अपनी जिन्दगी की दास्तान निर्भय और निर्बाध रूप से खुलकर सुनाई। पाठकों को ऐसे व्यक्तियों के जीवन में झांकने की निकट अंतर्दृष्टि उपलब्ध कराती है यह पुस्तक-‘गलती किसकी ?’ वरना आप उन्हें नज़रअंदाज कर देते, उनसे अनजान रहते और/या आप उनमें दाखिल ही नहीं हो पाते। यह पुस्तक इन वास्तविताओं को श्वेत-श्याम रंग-रूप में उन सभी व्यक्तियों के समक्ष उजागर करती है जो इन घटनाओं की रोकथाम में भूमिका निभा सकते हैं। यह पुस्तक किए जानेवाले कर्तव्यों और स्वीकार किए जानेवाले उत्तदायित्यों को परिभाषित करती है।
इन विवरणों को लिखने के विचार का निर्णय ‘दि टाइम्स ऑफ इण्डिया’ के संपादक दिलीप पडगांवकर और उनकी सहयोगी सबीना सैकिया के साथ एक अल्पाहार बैठक के दौरान लिया गया। इन विचारोत्तेजक सच्चाइयों को कागज पर उतारने के योग्य बनाने के लिए मैं उन दोनों के प्रति कृतज्ञ हूं।
मैं ‘नवज्योति और इण्डिया विजन फाउण्डेशन’ नामक अपने दो संगठनों के प्रति भी समान रुप से ऋणी हूं जिन्होंने इस पुस्तक में उल्लिखित व्यक्तियों के साथ सम्पर्क करने की पहल की और जिन्होंने वर्णित व्यक्तियों की बाद में भी जरुरत पड़ने पर देखभाल की जिम्मेदारी ली।
मैं अपनी टीम के सदस्यों-सुनील वर्मा और कामिनी गोगिया के उदार और निर्बाध समर्थन के लिए सर्वाधिक आभारी हूं।
मैं यह पुस्तक और इससे होनेवाली आय सभी जरूरतमंदों की भलाई के लिए समर्पित करती हूं।
आइए, हम सब अवांछनीय और निरोधार्य घटनाओं को रोकना सीखें।
महान आशाओं के साथ,
गलती किसकी? प्रथमहस्त संग्रह है उन व्यक्तियों के स्वैच्छिक लेखे-जोखे का, जिनके पास अपने अतीत की गलतियों की घोषणा करने के अलावा और कुछ नहीं-प्रत्येक पीड़ादायी अनुभवों का भंडार है। इन व्यक्तियों में स्त्री, पुरुष किशोर और यहां तक कि बच्चे भी शामिल हैं। इन्होंने अपने जीवन की गलतियों को बताने की हिम्मत जुटाई। इन्होंने बताया कि किस हद तक इसके लिए वे स्वयं उत्तरदायी थे और यह भी कि किस हद तक बाहरी परिस्थितियां इनके नियंत्रण से बाहर थीं।
अपने रोजमर्रा के कामकाज में, चाहे वह पुलिस की नौकरी हो या सामुदायिक सेवा, जिसके लिए मैं वचनबद्ध हूं, ये असंख्य दास्तानें व्यक्तिगत तौर पर निदान खोजने के लिए मुझे ‘उद्वेलित’ करती हैं। मैं साफ तौर पर इन लोगों को प्रशासनिक उपेक्षा का वर्णन करते देखती हूं और यह भी कि जो लोग इनकी मुसीबतों के लिए जिम्मेदार हैं, अगर वे चाहते तो जाहिराना तौर पर अपरिहार्य दिखाई पड़नेवाली इनकी समस्याएं निश्चित तौर पर निरोधार्य थीं।
बुद्धिमानी इसमें है कि आप अपनी और अन्य लोगों की गलतियों से सबक लें। जागरुक होना शस्त्रास्त से लैस होने के समान होता है और रोकथाम उपचार से बेहतर होती है। ये अक्सर दोहराई जानेवाली उक्तियां हैं किन्तु ये उच्चस्तरीय वास्तविकता से ओपप्रोत हैं।
यह पुस्तक सम्मान और आपसी समझ के परिणामस्वरूप दिए गए उन व्यक्तियों के आख्यानों का अद्भुत संग्रह है जिन्होंने अपनी जिन्दगी की दास्तान निर्भय और निर्बाध रूप से खुलकर सुनाई। पाठकों को ऐसे व्यक्तियों के जीवन में झांकने की निकट अंतर्दृष्टि उपलब्ध कराती है यह पुस्तक-‘गलती किसकी ?’ वरना आप उन्हें नज़रअंदाज कर देते, उनसे अनजान रहते और/या आप उनमें दाखिल ही नहीं हो पाते। यह पुस्तक इन वास्तविताओं को श्वेत-श्याम रंग-रूप में उन सभी व्यक्तियों के समक्ष उजागर करती है जो इन घटनाओं की रोकथाम में भूमिका निभा सकते हैं। यह पुस्तक किए जानेवाले कर्तव्यों और स्वीकार किए जानेवाले उत्तदायित्यों को परिभाषित करती है।
इन विवरणों को लिखने के विचार का निर्णय ‘दि टाइम्स ऑफ इण्डिया’ के संपादक दिलीप पडगांवकर और उनकी सहयोगी सबीना सैकिया के साथ एक अल्पाहार बैठक के दौरान लिया गया। इन विचारोत्तेजक सच्चाइयों को कागज पर उतारने के योग्य बनाने के लिए मैं उन दोनों के प्रति कृतज्ञ हूं।
मैं ‘नवज्योति और इण्डिया विजन फाउण्डेशन’ नामक अपने दो संगठनों के प्रति भी समान रुप से ऋणी हूं जिन्होंने इस पुस्तक में उल्लिखित व्यक्तियों के साथ सम्पर्क करने की पहल की और जिन्होंने वर्णित व्यक्तियों की बाद में भी जरुरत पड़ने पर देखभाल की जिम्मेदारी ली।
मैं अपनी टीम के सदस्यों-सुनील वर्मा और कामिनी गोगिया के उदार और निर्बाध समर्थन के लिए सर्वाधिक आभारी हूं।
मैं यह पुस्तक और इससे होनेवाली आय सभी जरूरतमंदों की भलाई के लिए समर्पित करती हूं।
आइए, हम सब अवांछनीय और निरोधार्य घटनाओं को रोकना सीखें।
महान आशाओं के साथ,
किरण बेदी
लेखक परिचय
डॉ. किरण बेदी भारतीय पुलिस सेवा की प्रथम वरिष्ठ महिला अधिकारी हैं।
उन्होंने विभिन्न पदों पर रहते हुए अपनी कार्य-कुशलता का परिचय दिया है।
वे संयुक्त आयुक्त पुलिस प्रशिक्षण तथा स्पेशल आयुक्त, खुफिया, दिल्ली
पुलिस के पद पर कार्य कर चुकी हैं। इस समय वे संयुक्त राष्ट् संघ के
‘शांति स्थापना ऑपरेशन’ विभाग में नागरिक पुलिस
सलाहकार’ के पद पर कार्यरत हैं। उन्हें वर्ष 2002 के लिए भारत
की ‘सबसे प्रशंसित महिला’ तथा ‘द
ट्रिब्यून’ के पाठकों ने उन्हें ‘वर्ष की सर्वश्रेष्ठ
महिला’ चुना।
डॉ. बेदी का जन्म सन् 1949 में पंजाब के अमृतसर शहर में हुआ। वे श्रीमती प्रेमलता तथा श्री प्रकाश लाल पेशावरिया की चार पुत्रियों में से दूसरी पुत्री हैं। उनके मानवीय एवं निडर दृष्टिकोण ने पुलिस कार्यप्रणाली एवं जेल सुधारों के लिए अनेक आधुनिक आयाम जुटाने में महत्वपूर्ण योगदान किया है। निःस्वार्थ कर्त्तव्यपरायणता के लिए उन्हें शौर्य पुरस्कार मिलने के अलावा अनेक कार्यों को सारी दुनिया में मान्यता मिली है जिसके परिणामस्वरूप एशिया का नोबल पुरस्कार कहा जाने वाला ‘रमन मेगासेसे’ पुरस्कार से उन्हें नवाजा गया। उनको मिलने वाले अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों की श्रृंखला में शामिल हैं-जर्मन फाउंडे्शन का जोसफ ब्यूज पुरस्कार, नार्वे के संगठन इंटशनेशनल ऑर्गेनाजेशन ऑफ गुड टेम्पलर्स का ड्रग प्रिवेंशन एवं कंट्रोल के लिए दिया जाने वाला एशिया रीजन एवार्ड जून 2001 में प्राप्त अमेरीकी मॉरीसन-टॉम निटकॉक पुरस्कार तथा इटली का ‘वूमन ऑफ द इयर 2002’ पुरस्कार।
व्यावसायिक योगदान के अलावा उनके द्वारा दो स्वयं सेवी संस्थाओं की स्थापना तथा पर्यवेक्षण किया जा रहा है। ये संस्स्थाएं हैं। 1988 में स्थापित ‘नव ज्योति’ एवं 1994 में स्थापित इंडिया विजन फाउंडेशन’। ये संस्थाएं रोजना हजारों गरीब बेसहारा बच्चों तक पहुँचकर उन्हें प्राथमिक शिक्षा तथा स्त्रियों को प्रौढ़ शिक्षा उपलब्ध कराती है। ‘नव ज्योति संस्था’ नशामुक्ति के लिए इलाज करने के साथ-साथ झुग्गी बस्तियों, ग्रामीण क्षेत्रों में तथा जेल के अंदर महिलाओं को व्यावसायिक प्रशिक्षण और परामर्श भी उपलब्ध कराती है। डॉ. बेदी तथा उनकी संस्थाओं को आज अंतर्राष्ट्रीय पहचान तथा स्वीकार्यता प्राप्त है। नशे की रोकथाम के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा किया गया ‘सर्ज साटिरोफ मेमोरियल अवार्ड’ इसका ताजा प्रमाण है।
वे एशियाई टेनिस चैंपियन रही हैं। उन्होंने कानून की डिग्री के साथ-साथ ‘ड्रग एब्यूज एण्ड डोमोस्टिक वायलेंस’ विषय पर डॉक्टरेट की उपाधि भी प्राप्त की है। उन्होंने ‘इट्स ऑलवेज पॉसिबल’ तथा दो आत्मकथा ‘आय डेयर’ एवं ‘काइंडली बेटन’ नामक पुस्तक लिखी है। इसके अलावा यथार्थ जीवन पर आधारित वृतांतों का संकलन ‘व्हाट वेंट रोंग’ नाम से किया है। इसके हिन्दी रुपांतर ‘गलती किसकी’ नाम से संकलित है। ये दोनों संकलन, दैनिक राष्ट्रीय समाचार पत्र ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ एवं ‘नवभारत टाइम्स’ में डॉ. बेदी के व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित पाक्षिक स्तभों से संबंधित हैं।
डॉ. बेदी का जन्म सन् 1949 में पंजाब के अमृतसर शहर में हुआ। वे श्रीमती प्रेमलता तथा श्री प्रकाश लाल पेशावरिया की चार पुत्रियों में से दूसरी पुत्री हैं। उनके मानवीय एवं निडर दृष्टिकोण ने पुलिस कार्यप्रणाली एवं जेल सुधारों के लिए अनेक आधुनिक आयाम जुटाने में महत्वपूर्ण योगदान किया है। निःस्वार्थ कर्त्तव्यपरायणता के लिए उन्हें शौर्य पुरस्कार मिलने के अलावा अनेक कार्यों को सारी दुनिया में मान्यता मिली है जिसके परिणामस्वरूप एशिया का नोबल पुरस्कार कहा जाने वाला ‘रमन मेगासेसे’ पुरस्कार से उन्हें नवाजा गया। उनको मिलने वाले अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों की श्रृंखला में शामिल हैं-जर्मन फाउंडे्शन का जोसफ ब्यूज पुरस्कार, नार्वे के संगठन इंटशनेशनल ऑर्गेनाजेशन ऑफ गुड टेम्पलर्स का ड्रग प्रिवेंशन एवं कंट्रोल के लिए दिया जाने वाला एशिया रीजन एवार्ड जून 2001 में प्राप्त अमेरीकी मॉरीसन-टॉम निटकॉक पुरस्कार तथा इटली का ‘वूमन ऑफ द इयर 2002’ पुरस्कार।
व्यावसायिक योगदान के अलावा उनके द्वारा दो स्वयं सेवी संस्थाओं की स्थापना तथा पर्यवेक्षण किया जा रहा है। ये संस्स्थाएं हैं। 1988 में स्थापित ‘नव ज्योति’ एवं 1994 में स्थापित इंडिया विजन फाउंडेशन’। ये संस्थाएं रोजना हजारों गरीब बेसहारा बच्चों तक पहुँचकर उन्हें प्राथमिक शिक्षा तथा स्त्रियों को प्रौढ़ शिक्षा उपलब्ध कराती है। ‘नव ज्योति संस्था’ नशामुक्ति के लिए इलाज करने के साथ-साथ झुग्गी बस्तियों, ग्रामीण क्षेत्रों में तथा जेल के अंदर महिलाओं को व्यावसायिक प्रशिक्षण और परामर्श भी उपलब्ध कराती है। डॉ. बेदी तथा उनकी संस्थाओं को आज अंतर्राष्ट्रीय पहचान तथा स्वीकार्यता प्राप्त है। नशे की रोकथाम के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा किया गया ‘सर्ज साटिरोफ मेमोरियल अवार्ड’ इसका ताजा प्रमाण है।
वे एशियाई टेनिस चैंपियन रही हैं। उन्होंने कानून की डिग्री के साथ-साथ ‘ड्रग एब्यूज एण्ड डोमोस्टिक वायलेंस’ विषय पर डॉक्टरेट की उपाधि भी प्राप्त की है। उन्होंने ‘इट्स ऑलवेज पॉसिबल’ तथा दो आत्मकथा ‘आय डेयर’ एवं ‘काइंडली बेटन’ नामक पुस्तक लिखी है। इसके अलावा यथार्थ जीवन पर आधारित वृतांतों का संकलन ‘व्हाट वेंट रोंग’ नाम से किया है। इसके हिन्दी रुपांतर ‘गलती किसकी’ नाम से संकलित है। ये दोनों संकलन, दैनिक राष्ट्रीय समाचार पत्र ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ एवं ‘नवभारत टाइम्स’ में डॉ. बेदी के व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित पाक्षिक स्तभों से संबंधित हैं।
आभार
इन कहानियों के मूल में वह व्यथा और पीड़ा है जिसे मैंने अपराध की
विभीषिका और उसके कालांतर प्रभावों से जूझते हुए बहुत करीब से देखा है।
अगर मैं इस पुस्तक में वर्णित लोगों को अपनी दास्तान सुनाने और उसे दूसरों
से साझा करने के लिए न बुलाती तो मुझे चैन नहीं मिल सकता था। ऐसा नहीं है
कि इन लोगों की दास्तान सुनकर इन्हें किसी की हमदर्दी पाने की इच्छा है।
इन्हें अपनी व्यथा-कथा कहने के लिए इसलिए बुलाया गया ताकि इसे पढ़-सुनकर
लोग जागरूक हो सकें। जो कुछ इन लोगों के साथ हुआ वह किसी के भी साथ हो
सकता है। मैं दण्डात्मक न्याय के बजाय रचनात्मक न्याय और सजा के बजाय
सुधार और मरहम लगाने में यकीन रखती हूं। नवज्योति एवं इण्डिया विजन
फाउंडेशन नामक मेरे दो संगठनों ने मेरे इस यकीन को आगे बढ़ाया है। थकाऊ और
संवेदनहीन व्यवस्था से कुछ राहत पाने के लिए किए गए उनके निरंतर प्रयास के
बिना यह पुस्तक संभव न होती।
मेरे दोनों संगठनों का सूत्र वाक्य है-टु सेव द नेक्स्ट विःक्टिम (यानी अगले व्यक्ति को अपराधी बनने से रोकने के लिए)। यह पुस्तक इसी दृष्टिकोण से प्रकाशित की जा रही है।
यह दस्तावेज इसमें उद्धृत उन लोगों के जीवन की सत्य कथाओं पर आधारित है जिन्होंने स्वेच्छा से हमें बताया कि उनके जीवन में क्या गलत हुआ, किस सीमा तक इसके लिए वे स्यवं उत्तरदायी थे और किस सीमा तक बाह्य परिस्थितियाँ उनके नियंत्रण के बाहर थी। उन्होंने मेरे प्रति जो सम्मान, समझदारी और निष्ठा दर्शायी, उसके लिए मैं इन सब की कृतज्ञ हूं।
मैं अंग्रेजी दैनिक ‘दि टाइम्स ऑफ इंडिया’ के सम्पादक श्री दिलीप पडगांवकर का स्वागत करती हूं जिन्होंने इस विषय को एक पाक्षिक स्तंभ के रूप में अपने अखबार में प्रकाशित करने में रुचि दिखाई। साथ ही मैं ‘नवभारत टाइम्स’ के संपादक श्री रामकृपाल सिंह की भी आभारी हूं जिन्होंने अपने समाचार पत्र के माध्यम से इन सत्य कथाओं को लाखों हिन्दी पाठकों तक पहुंचाया। लगभग विगत दो वर्षों से अंग्रेजी में ‘व्हाट वेंट रांग ?’ और हिन्दी में ‘गलती कहां हुईं’ क्रमशः दि टाइम्स ऑफ इंडिया एवं नवभारत टाइम्स में हर पखवाड़े प्रकाशित हो रहे हैं।
मेरे लिए मेरे नवज्योति एवं इंडिया विजन फाउंडेशन के सदस्यों एवं सलाहकारों, डॉक्टरों अध्यापकों के योगदान का उल्लेख करना अत्यंत अनिवार्य है, जिन्होंने इस पुस्तक में प्रकाशित व्यक्तियों के बारे में मुझे आंकड़े तथा अन्य जानकारियाँ उपलब्ध कराईं।
मैं कृतज्ञ हूं अपने नवज्योति नशामुक्ति केन्द्र के सदस्यों की जिन्होंने मेरे पास मूलचंद का पहला मामला भेजा और मैं मूलचंद की भी आभारी हूं जिसने एक नए आंदोलन की पहलकदमी की।
तिहाड़ जेल में अपने कार्यकाल के दौरान मैंने जो परियोजनाएं वहां शुरु कीं वे मुझे आज भी तिहाड़ से जोड़े हुए हैं। जेल से रिहा हुए अनेक कैदी मेरे ओर मेरी संस्थाओं के पास पुनर्वास की उम्मीद लिए आते हैं। हमने उनकी सहायता का प्रयास किया। उनमें से कुछ लोगों का उल्लेख इस पुस्तक में हुआ है। उस समय तिहाड़ जेल के अंदर कार्य के लिए जिन स्वैच्छिक संगठनों को आमंत्रित किया गया था, वे अपना नेक कार्य अब भी जारी रखे हुए हैं। अनेक पुनर्वासित नशाखोर और जेलों से रिहा हुए कैदी मेरे संगठनों में इस समय कार्यरत हैं। ये लोग अपने अतीत की दास्तान, लोगों को सुनाकर उन्हें सुधारने के लिए प्रेरित करते हैं। मैं इन सबके प्रति कृतज्ञ हूं।
मैं इंडिया विजन फाउंडेशन द्वारा संचालित ‘क्राइम होम चिल्ड्रन’ के सदस्यों की आभारी हूं जिन्होंने मुझे परियोजना में पंजीकृत अनेक रिहा कैदियों और उनके परिवारों की हालत के बारे में विस्तृत जानकारी दी। ग्रामीण समस्याओं का समावेश किए बैगर यह पुस्तक पूर्ण नहीं हो सकती थी। शहर के बाहरी क्षेत्र में रहने वाली लक्ष्मी अपनी दास्तान बताने को बड़ी मुश्किल से राजी हुई किन्तु जब वह एक बार खुली तो ढेर सारी जानकारियां दे डालीं।
मैं समान रुप से कृतज्ञ हूं ‘फ्यूजन बुक्स’ के नरेन्द्र वर्मा के प्रति जिन्होंने पुस्तक की पांडुलिपि में किए गए मेरे अनेक संशोधनों को स्वीकार किया। मैं उनके धैर्य की प्रशंसा करती हूं।
अंततः मैं अपने माता-पिता के साथ श्रद्धावनत हूं जिन्होंने मुझे एक संवेदनशील व्यक्ति के रुप में गढ़ा। विशेष रुप से मैं अपनी मां की ऋणी हूं जिनकी भौतिक उपस्थिति से मैं हमेशा के लिए वंचित हो गई हूं।
सचमुच, अगर मैं इस व्यवस्था का अंग न होती तो यह सब कुछ संभव न हो पाता। यह व्यवस्था आज भी ऐसे अनेक लोग पैदा कर रही है जिनके पास यह बताने को है कि उनके साथ क्या गलत हुआ। ऐसे लोगों की आपबीती ‘समाज में जागरुकता’ की दिशा तय करती है।
मेरे दोनों संगठनों का सूत्र वाक्य है-टु सेव द नेक्स्ट विःक्टिम (यानी अगले व्यक्ति को अपराधी बनने से रोकने के लिए)। यह पुस्तक इसी दृष्टिकोण से प्रकाशित की जा रही है।
यह दस्तावेज इसमें उद्धृत उन लोगों के जीवन की सत्य कथाओं पर आधारित है जिन्होंने स्वेच्छा से हमें बताया कि उनके जीवन में क्या गलत हुआ, किस सीमा तक इसके लिए वे स्यवं उत्तरदायी थे और किस सीमा तक बाह्य परिस्थितियाँ उनके नियंत्रण के बाहर थी। उन्होंने मेरे प्रति जो सम्मान, समझदारी और निष्ठा दर्शायी, उसके लिए मैं इन सब की कृतज्ञ हूं।
मैं अंग्रेजी दैनिक ‘दि टाइम्स ऑफ इंडिया’ के सम्पादक श्री दिलीप पडगांवकर का स्वागत करती हूं जिन्होंने इस विषय को एक पाक्षिक स्तंभ के रूप में अपने अखबार में प्रकाशित करने में रुचि दिखाई। साथ ही मैं ‘नवभारत टाइम्स’ के संपादक श्री रामकृपाल सिंह की भी आभारी हूं जिन्होंने अपने समाचार पत्र के माध्यम से इन सत्य कथाओं को लाखों हिन्दी पाठकों तक पहुंचाया। लगभग विगत दो वर्षों से अंग्रेजी में ‘व्हाट वेंट रांग ?’ और हिन्दी में ‘गलती कहां हुईं’ क्रमशः दि टाइम्स ऑफ इंडिया एवं नवभारत टाइम्स में हर पखवाड़े प्रकाशित हो रहे हैं।
मेरे लिए मेरे नवज्योति एवं इंडिया विजन फाउंडेशन के सदस्यों एवं सलाहकारों, डॉक्टरों अध्यापकों के योगदान का उल्लेख करना अत्यंत अनिवार्य है, जिन्होंने इस पुस्तक में प्रकाशित व्यक्तियों के बारे में मुझे आंकड़े तथा अन्य जानकारियाँ उपलब्ध कराईं।
मैं कृतज्ञ हूं अपने नवज्योति नशामुक्ति केन्द्र के सदस्यों की जिन्होंने मेरे पास मूलचंद का पहला मामला भेजा और मैं मूलचंद की भी आभारी हूं जिसने एक नए आंदोलन की पहलकदमी की।
तिहाड़ जेल में अपने कार्यकाल के दौरान मैंने जो परियोजनाएं वहां शुरु कीं वे मुझे आज भी तिहाड़ से जोड़े हुए हैं। जेल से रिहा हुए अनेक कैदी मेरे ओर मेरी संस्थाओं के पास पुनर्वास की उम्मीद लिए आते हैं। हमने उनकी सहायता का प्रयास किया। उनमें से कुछ लोगों का उल्लेख इस पुस्तक में हुआ है। उस समय तिहाड़ जेल के अंदर कार्य के लिए जिन स्वैच्छिक संगठनों को आमंत्रित किया गया था, वे अपना नेक कार्य अब भी जारी रखे हुए हैं। अनेक पुनर्वासित नशाखोर और जेलों से रिहा हुए कैदी मेरे संगठनों में इस समय कार्यरत हैं। ये लोग अपने अतीत की दास्तान, लोगों को सुनाकर उन्हें सुधारने के लिए प्रेरित करते हैं। मैं इन सबके प्रति कृतज्ञ हूं।
मैं इंडिया विजन फाउंडेशन द्वारा संचालित ‘क्राइम होम चिल्ड्रन’ के सदस्यों की आभारी हूं जिन्होंने मुझे परियोजना में पंजीकृत अनेक रिहा कैदियों और उनके परिवारों की हालत के बारे में विस्तृत जानकारी दी। ग्रामीण समस्याओं का समावेश किए बैगर यह पुस्तक पूर्ण नहीं हो सकती थी। शहर के बाहरी क्षेत्र में रहने वाली लक्ष्मी अपनी दास्तान बताने को बड़ी मुश्किल से राजी हुई किन्तु जब वह एक बार खुली तो ढेर सारी जानकारियां दे डालीं।
मैं समान रुप से कृतज्ञ हूं ‘फ्यूजन बुक्स’ के नरेन्द्र वर्मा के प्रति जिन्होंने पुस्तक की पांडुलिपि में किए गए मेरे अनेक संशोधनों को स्वीकार किया। मैं उनके धैर्य की प्रशंसा करती हूं।
अंततः मैं अपने माता-पिता के साथ श्रद्धावनत हूं जिन्होंने मुझे एक संवेदनशील व्यक्ति के रुप में गढ़ा। विशेष रुप से मैं अपनी मां की ऋणी हूं जिनकी भौतिक उपस्थिति से मैं हमेशा के लिए वंचित हो गई हूं।
सचमुच, अगर मैं इस व्यवस्था का अंग न होती तो यह सब कुछ संभव न हो पाता। यह व्यवस्था आज भी ऐसे अनेक लोग पैदा कर रही है जिनके पास यह बताने को है कि उनके साथ क्या गलत हुआ। ऐसे लोगों की आपबीती ‘समाज में जागरुकता’ की दिशा तय करती है।
उपेक्षित सीमा का त्रासद ‘अफसाना’
1
मेरा नाम अफसाना है और उम्र 29 साल। मेरे दो बच्चे हैं। 19 वर्ष की आयु
में मैं अपने पिताजी से मिलने दिल्ली आई। ऑटोरिक्शा वाला मुझे उनके पास ले
जाने के बजाय अपने घर ले गया और मेरे साथ बलात्कार किया। जब उसने दूसरे
दिन मुझे मेरे पिता के पास पहुंचाने को कहा तो मैंने इनकार कर दिया और
उसके साथ तत्काल विवाह के लिए अड़ गई।
पहले मेरा नाम सीमा था। मैं हरियाणा के एक समृद्ध परिवार में पैदा हुई। हमारे परिवार वालों के पास ढेर सारी जमीन तथा एक बड़ा-सा मकान था। हम लोग संयुक्त रूप से एक साथ रहते थे। हमारे घर में सब कुछ था सिवाय प्यार के। मेरे दो छोटे भाई थे। हम लोग साथ-साथ स्कूल जाया करते। मेरे पिताजी दिल्ली के एक बड़ी खुफिया एजेंसी में कार्यरत थे तथा दिल्ली में अकेले ही रहते थे। मेरी मां हमारी जमीन की देखभाल करती और हमें हमारे पिताजी की कमी अखरने न देने की पूरी कोशिश करती। हम अपने पिताजी की लम्बी प्रतीक्षा करते, लेकिन उनके पास हमारे लिए वक्त नहीं था।
मेरा बचपन बहुत सुरक्षित था। मैं नियमित स्कूल जाती और स्कूल से लौटकर घर के अन्दर रहती। मैं पढ़ने में बहुत अच्छी थी इसलिए कक्षा में मेरी प्रतिष्ठा थी। चूंकि पढ़ाई के सिलसिले में मुझे ज्यादातर घर से बाहर रहना पड़ता, अतः मैं पढ़ाई के अलावा संगीत, नाटक आदि गतिविधियों में भी भाग लेती।
दसवीं कक्षा पास होने तक ऐसा ही चलता रहा। इंटर की पढ़ाई के लिए मुझे कालेज में दाखिला लेना था। इस बारे में निर्णय करने के लिए मेरे पिताजी संयोगवश उस समय घर में मौजूद थे। वह मुझे पास के एक कस्बे में स्थित हॉस्टल में दाखिल कराकर चले गए। मैंने कक्षा में अपनी स्थिति बेहतर बनाने के उद्देश्य से डटकर पढ़ाई की। बहरहाल, इस बीच मुझे अहसास हुआ कि मैं नितांत अकेली हूं। मुझसे मिलने के लिए मेरे घर से कोई नहीं आता। कभी-कभार मेरी माँ आ भी जाती तो उसे मेरे छोटे भाइयों की फिक्र लगी रहती, अतः वह जल्दी ही वापस चली जाती। मुझे याद आता है कि मेरे पिताजी मुझसे मिलने बमुश्किल तमाम एक या दो बार ही आए। इसका मेरे दिमाग पर गहरा असर हुआ और मेरा मन पढ़ाई से उचट गया। मैं खाली बैठ कर फिल्में और टेलीविजन देखने में अपना समय गंवाने लगी। मैं अपने पिताजी को रोज पत्र लिखती कि आप भी अन्य बच्चों के पापा की तरह मुझे मिलने आया करें, लेकिन उनके पास कभी वक्त नहीं रहा। उनका ध्यान आकर्षित करने के लिए मैंने उनके पास अपनी समस्याएं भी लिख कर भेजीं, किन्तु उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। मैं छुट्टी के दिनों में बहुत उदास रहती अतः जल्दी ही हॉस्टल लौट जाती।
मैंने बारहवीं की परीक्षा पास कर ली। मेरे पिताजी ने फैसला किया कि आगे की पढ़ाई जारी रखूं और उसी कॉलेज के हॉस्टल में रहूं। इस बार मैंने पांव लटका दिए। मैंने अपने माता-पिता को साफ-साफ बता दिया कि वे मेरे हॉस्टल का खर्चा देंगे तब भी मैं वहां नहीं पढ़ूंगी। किसी ने मेरी बात नहीं सुनी। अगले ही दिन मैं हॉस्टल पहुंच गई। मेरे लिए मेरे माता-पिता की आज्ञा का उल्लंघन करना सरल नहीं था। इस बीच मेरे मित्रों ने मुझे कई सुझाव दिए जिनका मुझे अफसोस है। मैंने पूरी तरह पढ़ाई बन्द कर दी। अपने अध्यापकों खासकर हॉस्टल वार्डन’ जो बड़ी बुरी औरत थी, की धमकियों के डर से ही पढ़ाई करती।
एक दिन हॉस्टल वार्डन ने मुझे अपने एक सहपाठी के कमरे के बाहर खड़े हुए पकड़ लिया। मैं अपने मित्र से अपनी नोट बुक वापस लेने के लिए वहां खड़ी थी, परन्तु वार्डन ने मेरी एक न सुनी। मेरी सभी दलीलें उसके बहरे कानों से टकरा कर लौट आईं। उसने मुझे बहुत बड़ी सजा दी। उसने पढ़ाई के साथ-साथ अन्य शिक्षेत्तर गतिविधियों से मेरा नाम काट दिया। वह सब मुझे बहुत नागवार गुजरा। मैंने अपने पिताजी को क्षुब्ध होकर पत्र लिखा और उनसे मेरे बचाव के लिए आने को कहा। वह मेरे पत्र का जवाब देने का समय भी नहीं निकाल सके, आना तो दूर की बात थी। मैं बी.ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा में फेल हो गई। शिक्षित होने का सपना मेरी आंखों के सामने ही चकनाचूर हो गया।
पहले मेरा नाम सीमा था। मैं हरियाणा के एक समृद्ध परिवार में पैदा हुई। हमारे परिवार वालों के पास ढेर सारी जमीन तथा एक बड़ा-सा मकान था। हम लोग संयुक्त रूप से एक साथ रहते थे। हमारे घर में सब कुछ था सिवाय प्यार के। मेरे दो छोटे भाई थे। हम लोग साथ-साथ स्कूल जाया करते। मेरे पिताजी दिल्ली के एक बड़ी खुफिया एजेंसी में कार्यरत थे तथा दिल्ली में अकेले ही रहते थे। मेरी मां हमारी जमीन की देखभाल करती और हमें हमारे पिताजी की कमी अखरने न देने की पूरी कोशिश करती। हम अपने पिताजी की लम्बी प्रतीक्षा करते, लेकिन उनके पास हमारे लिए वक्त नहीं था।
मेरा बचपन बहुत सुरक्षित था। मैं नियमित स्कूल जाती और स्कूल से लौटकर घर के अन्दर रहती। मैं पढ़ने में बहुत अच्छी थी इसलिए कक्षा में मेरी प्रतिष्ठा थी। चूंकि पढ़ाई के सिलसिले में मुझे ज्यादातर घर से बाहर रहना पड़ता, अतः मैं पढ़ाई के अलावा संगीत, नाटक आदि गतिविधियों में भी भाग लेती।
दसवीं कक्षा पास होने तक ऐसा ही चलता रहा। इंटर की पढ़ाई के लिए मुझे कालेज में दाखिला लेना था। इस बारे में निर्णय करने के लिए मेरे पिताजी संयोगवश उस समय घर में मौजूद थे। वह मुझे पास के एक कस्बे में स्थित हॉस्टल में दाखिल कराकर चले गए। मैंने कक्षा में अपनी स्थिति बेहतर बनाने के उद्देश्य से डटकर पढ़ाई की। बहरहाल, इस बीच मुझे अहसास हुआ कि मैं नितांत अकेली हूं। मुझसे मिलने के लिए मेरे घर से कोई नहीं आता। कभी-कभार मेरी माँ आ भी जाती तो उसे मेरे छोटे भाइयों की फिक्र लगी रहती, अतः वह जल्दी ही वापस चली जाती। मुझे याद आता है कि मेरे पिताजी मुझसे मिलने बमुश्किल तमाम एक या दो बार ही आए। इसका मेरे दिमाग पर गहरा असर हुआ और मेरा मन पढ़ाई से उचट गया। मैं खाली बैठ कर फिल्में और टेलीविजन देखने में अपना समय गंवाने लगी। मैं अपने पिताजी को रोज पत्र लिखती कि आप भी अन्य बच्चों के पापा की तरह मुझे मिलने आया करें, लेकिन उनके पास कभी वक्त नहीं रहा। उनका ध्यान आकर्षित करने के लिए मैंने उनके पास अपनी समस्याएं भी लिख कर भेजीं, किन्तु उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। मैं छुट्टी के दिनों में बहुत उदास रहती अतः जल्दी ही हॉस्टल लौट जाती।
मैंने बारहवीं की परीक्षा पास कर ली। मेरे पिताजी ने फैसला किया कि आगे की पढ़ाई जारी रखूं और उसी कॉलेज के हॉस्टल में रहूं। इस बार मैंने पांव लटका दिए। मैंने अपने माता-पिता को साफ-साफ बता दिया कि वे मेरे हॉस्टल का खर्चा देंगे तब भी मैं वहां नहीं पढ़ूंगी। किसी ने मेरी बात नहीं सुनी। अगले ही दिन मैं हॉस्टल पहुंच गई। मेरे लिए मेरे माता-पिता की आज्ञा का उल्लंघन करना सरल नहीं था। इस बीच मेरे मित्रों ने मुझे कई सुझाव दिए जिनका मुझे अफसोस है। मैंने पूरी तरह पढ़ाई बन्द कर दी। अपने अध्यापकों खासकर हॉस्टल वार्डन’ जो बड़ी बुरी औरत थी, की धमकियों के डर से ही पढ़ाई करती।
एक दिन हॉस्टल वार्डन ने मुझे अपने एक सहपाठी के कमरे के बाहर खड़े हुए पकड़ लिया। मैं अपने मित्र से अपनी नोट बुक वापस लेने के लिए वहां खड़ी थी, परन्तु वार्डन ने मेरी एक न सुनी। मेरी सभी दलीलें उसके बहरे कानों से टकरा कर लौट आईं। उसने मुझे बहुत बड़ी सजा दी। उसने पढ़ाई के साथ-साथ अन्य शिक्षेत्तर गतिविधियों से मेरा नाम काट दिया। वह सब मुझे बहुत नागवार गुजरा। मैंने अपने पिताजी को क्षुब्ध होकर पत्र लिखा और उनसे मेरे बचाव के लिए आने को कहा। वह मेरे पत्र का जवाब देने का समय भी नहीं निकाल सके, आना तो दूर की बात थी। मैं बी.ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा में फेल हो गई। शिक्षित होने का सपना मेरी आंखों के सामने ही चकनाचूर हो गया।
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